जितेन्द्र परमार “जीत” – नारी/महिला – साप्ताहिक प्रतियोगिता

जन्म से ही है पराई कहलाती,दो घर का मान बढा़ती है।अपनी वाणी व सूझबूझ से,जीवन का पाठ पढा़ती है।।दुख व कठिनाईयों से लड़कर,खुशियों से घर को महकाती है।लक्ष्मी बनकर आती बाबुल के अंगना,चिड़िया की तरह ससुराल को उड़ जाती है।।सर्द सुबह सी वो स्वाभिमानी,शीतल शाम सी शर्माती है।औरत वो आकाश जो तारों से भरा,रजनी जैसी वो बलखाती है।।प्रेम धारा आंचल में समेटे,वो तो ममता की मूरत है।कहलाती है जो घर की इज्जत,वो अग्नि सम ओजस औरत है।।
आंगन की तुलसी कहलाती वो,पापा की परी वो प्यारी है।सुहाग की वो सच्ची जीवनसाथी,पूत की पक्की पालनहारी है।।कोई एक प्रेम का फूल नहीं वो,वो तो प्रेम पुष्पों की फुलवारी है।घर व परिवार की लाज के लिए,उसका पूरा जीवन बलिहारी है।।सीता,सुशीला व सावित्री है जो,वो औरत,स्त्री व पावन नारी है।औरत नहीं है आम विभुति,वो तो देवी की अवतारी है।।अनमोल है जो इस धरती पर,फीकी उसके आगे दौलत व शोहरत है।कहलाती है जो घर की इज्जत,वो अग्नि सम ओजस नारी है।।