
मैं एक मुसाफिर, प्यार परोसते၊ मैं एक शायर, यारी को पिरोते၊ हैं मेरे दिल की थैली में, अनोखे चमकती मोतियाँ၊ उनसे मैं, हर समाज के हित लिए, प्यार का एक ताजमहल बनाने, निकल चला आया हूँ। हाँ जी,मैं एक शायर अपनी लफ़्ज़ों से, बुझा दूँ हर कही नफरत,प्यार छिडकते। इस दुनिया को मैं, अपने दिल से,नज़रों से सॉवारता हूँ၊ विरासत से मिली मेरी संस्कृति की सुन्दर चश्मा से, सब कुछ सही नज़राती हूँ၊ एक फकीर बन बरसों से, नफरत की आग दिलों के मिटाके चला आता हूँ၊ उस ऐनक पहनकर एक दिन समाज भी, भले मानुसों से भर जायेगा၊ भाईचारा यहाँ बुलंद हो जायेगा၊ धार्मिकता का सही पहचान होगा तब၊ हिंदु वसुदेव कुटुम्बम का बीज बोयेगा, मुसमान अल्लाह का गुणगान गाकर ममता की बूँदें उस पर छिडकेगा और इसाई, प्यार के खाद से उसीको खुशहाल फसल बना देगी၊ सही आदमी का पहचान, यहाँ से शुरु होता है၊ धर्म एक पुल है, अपने को स्वयं खोजने, एवं अपनी सत्ता को पहचानने၊ शांति और जिन्दगानी तब၊ अभी वक्त आ गया साथ मेरी शायरी भी၊ मेरी कसम तुम बुझा दें नफ़रत की आग, ज़रा प्यार छिडकते၊၊