
प्यार का एक सागर था मुझमें, पर नफरतों का एक सैलाब था तुझमें, फिर क्यों न बह जाते तुम मुझमें । मैं प्यार तलाशता था तुझमे , तुम नफ़रत ढूंढते रहे मुझमें । वो बार बार मनाने की अदा थी मुझमें, पर हर बार ठुकराने का अंदाज भी था तुझमें। मैं इंसाफ भी किससे माँगता , वो मेरा शहर भी था तुझमें, मेरी अदालत ,वकील भी था तुझमें । प्यार बहुत गहरा था मुझमें , पर नफ़रतें भी कमाल थी तुझमें। कमियाँ तलाशते रह गए तुम मुझसे , काश की कुछ और भी देख लेते ……… ज़मीर और वफ़ा भी कमाल की थी मुझमे । तुम नालायकी ढूंढते रहे मुझमें , पर तेरे लिए तो लायकी भी बहुत थी मुझमें । प्यार-इश्क भी बेमिसाल था मुझमे , और तुम नफरतों में उलझें रहे….. तुम तबाही का मंजर देखते रहे मुझमे….. पर तेरा एक ठिकाना भी था मुझमे । तुम तसुव्वर-ए-गर्दिश में खोए रहे ……. तेरी एक जन्नत बसती थी मुझमे ।। तुम खामखाह स्याही फ़ेकते रहे , तेरा एक दर्पण बना था मुझमे । मेरी पहचान छिपी थी तुझमे , तुम तस्लीम तो होते कभी मुझमे । तुम चाँद तो बनते कभी…… एक चकोर रहती थी मुझमे । तुम दीपक तो बनते कभी…… रोशन करता तेरे सारे जहाँ को , एक बाती छिपी थी मुझमे । रूह से रूह तो मिलाते ….. तेरा जज़्बात-ए-इश्क छिपा था मुझमे । तुम आजमाइश की पैमाइश तो करते….. हौंसला भी बहुत छिपा था मुझमे। मस्जिद तलाशता था तुझमे…… जो एक काज़ी छिपा था मुझमे । खुदा ढूँढता था तुझमे , जो एक नबी छिपा था मुझमे । अर्धांगिनी तलाशता था तुझमे, तुम दामन छुड़ाती रही मुझमें । प्यार का समंदर था मुझमें, फिर क्यो न तुम नफरतों को बहा देते मुझमें।