मूर्तिपूजा श्रेयस्कर है या निर्गुण ब्रह्म की उपासना

rp_Copy-of-up-150x15011.jpg pk फिल्म आजकल चर्चा का विषय बनी हुई है, फिल्म देखने के बाद मुझे कबीरदासजी की स्मरण अनायास ही हो गया, साथ ही ख्याल आया अपनी प्रकाशित परिचर्चा का जिसके माध्यम से मेरे विचार उद्घाटित हुए..अवलोकन कीजिए

प्रकाषित परिचर्चा prof. Urmila Porwal

 

पाहन पूजै हरि मिले, त¨ मैं पूजू पहार! ता से ते चाकी भली, पीस खाये संसार !! कबीरदासजी की ये पंक्तियाँ मेरे तर्क की सटीक पुश्टि करती है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना श्रेयस्कर है। भक्ति के उद्भव एवं विकासयात्रा का अध्ययन करने पर ज्ञात ह¨ता है कि भारत में आध्यात्मिक चिन्तन अ©र भक्ति की परम्पराएँ अत्यन्त प्राचीन रही है, ईसा की 15वी षताब्दी के आरम्भ में भारतीय भक्ति-धारा के अन्तर्गत हमें वैश्णव भक्ति के द¨ रूप देखने क¨ मिलते है- सगुण भक्ति अ©र निर्गुण भक्ति। सर्वप्रथम यह प्रष्न मन में उठना स्वाभाविक है कि निर्गुण भक्ति क्या है? अ©र निर्गुण भक्ति ने क्या उद्देष्य लेकर अपना अस्तित्व निर्मित किया। निर्गुण भक्ति नैतिकताप्रधान धारा है। इस धारा के ल¨ग एकेष्वरवाद अ©र अद्वैतवादी भावना के समर्थक, मानवतावाद के प¨शक है, अ©र ये सन्त कहलाते है, ये किसी धर्म या सम्प्रदाय के बनकर नहीं रहते, इनका मानना है कि ईष्वर निराकार है उसका क¨ई रूप-रंग, क¨ई जाति-वर्ग नहीं ह¨ता। वह त¨ एक ज्य¨ति पुंज है अ©र प्रत्येक जीव में ईष्वर का अंष विद्यमान है, आत्मा, परमात्मा का ही लघु रूप ह¨ती है इसलिए इन्ह¨ंने अपनी वाणी, वचन के द्वारा जाति-वर्ग केे भेद-भाव क¨ मिटाने का प्रयत्न किया। इस भक्तिधारा के द्वार सभी जाति-वर्ग के लिए खुले है। संत¨ं ने आध्यात्मिक साधना एवं सामाजिक अभ्युत्थान के प्रचार के साथ बाह्याडम्बर¨ं (माया-म¨ह, कनक-कामिनी, मांसाहार, तीर्थाटन आदि) का विर¨ध करते हुए मनुश्य क¨ संयम, क्षमा, दया, संत¨श, विष्वास आदि से सम्पन्न बनाने का प्रयास किया। निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना करने तथा मन्दिर के आचार-विचार का घ¨र विर¨ध किया। वेदाध्ययन करने एवं बाह्य-साधना की अपेक्षा अन्तःसाधना पर बल देते हुए इन्द्रिय-निग्रह, प्राणायाम, य¨ग-साधना आदि के द्वारा म¨क्ष प्राप्ति के मार्ग का प्रतिपादन किया। उन्ह¨ंने उदाहरण देकर समझाया कि-जिस प्रकार वीणा के तार¨ं क¨ अधिक कस दिया जाय त¨ वे टूट जाते है अ©र यदि ढ़ीला रखा जाय त¨ उनसे स्वर-संगीत की लय बिगड़ जाती है। ठीक उसी प्रकार षरीर क¨ कश्टकारक तपस्या, उपवास करके क्षीण बनाकर यह स¨चा जाए कि ईष्वर प्रसन्न ह¨ंगे अ©र कृपा बरसायेंगे यह भ्रममात्र है, भगवान त¨ भावना के भुखे ह¨ते है। वे ये कभी नहीं चाहते कि क¨ई उनकी भक्ति के लिए घर-द्वार छ¨ड़कर वन में जाय अ©र वहाँ निराहार रहकर अनेक कश्ट सहते हुए घ¨र तप करते हुए अपने अंग¨ं क¨ सुखाकर भजन करें। गृहस्थ रहकर अपने सांसारिक कर्तव्य¨ं का निर्वाह करते हुए काम, क्र¨ध, ल¨भ, म¨ह आदि विकार¨ं से मन क¨ बचाते हुए अपने वष में कर अनासक्त भाव से जीवन यापन करेगे त¨ ईष्वर प्रसन्न ह¨ंगे निर्गुण भक्ति में इस मध्यम मार्ग का अनुसरण किया गया अ©र नाम-स्मरण का अत्यधिक महत्व माना गया है वे नाम क¨ ही ब्रह्म मानते है। वे कहते है स्मरण हृदय से ह¨ना चाहिए क्य¨ंकि भक्ति का स्थान मानव हृदय ही ह¨ता है। वहीं श्रृद्धा अ©र प्रेम के संय¨ग से भक्ति का प्रादुर्भाव ह¨ता है। इस बात की पुश्टि हिन्दी सिनेमा जगत ने भी एक फिल्म (OMG) के माध्यम से की है। निर्गुण भक्ति विष्वबन्धुत्व की भावना क¨ जाग्रत करने वाली धारा है। इसने वर्ण-भेद, वर्ग-भेद आदि क¨ मिटाकर सम्पूर्ण व्यक्तिय¨ं के लिए भक्ति क¨ सुलभ एवं समानतापूर्ण स्थान दिया। वर्तमान समय में ज¨ धर्म क्षेत्र में पारस्परिक वैमनस्य एवं ईश्र्या-द्वेश बढ़ रहा है, धर्म के नाम पर ज¨ ग¨रख धंधा फैला हुआ है इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आज के युग में एक ऐसी ही भक्ति-धारा की आवष्यकता है जिसे प्रत्येक जाति-वर्ण के ल¨ग बिना किसी हिचकिचाहट के धारण कर सकें।, अतः निर्गुण भक्ति का आश्रय लेकर एक ऐसी सामान्य भक्ति का मार्ग अपनाया जा सकता है जिसमें राम-रहीम, कृश्ण-करीम, महादेव-मुहम्मद की एकरूपता स्थापित है साथ ही साथ ईष्वर की एकता के आधार पर मानव मात्र की एकता पर बल दिया गया है। तुलसीदासजी ने सगुण भक्ति धारा के ह¨ते हुए भी रामचरितमानस में लिखा है ज¨ कि निर्गुण भक्ति की महत्ता क¨ दर्षाता है- कलयुग केवल नाम आधारा सिमर-सिमर नर उतरहिं पारा!! अर्थात् कलियुग में दुनिया रूपी सागर क¨ पार करके म¨क्ष पाने का एक ही मार्ग है वह है ईष्वर के नाम का जाप करना। अतः सिद्ध है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना श्रेयस्कर है।