
मैंने देखा उसे सपनों में रत।
दुनिया से बेखबर
अपने में मगन
चेहरे पर शिकन
जाने किस सोच में थी लगन।
हां दुनिया से बेखबर
वह सोया था सड़क के किनारे
पत्थर पर सिर रख।
बोलते नहीं थे होठ,
बोलती नहीं थी आंखें,
फिर भी बोल रहा था कुछ तो उसके भीतर से
मानो कहता हो,
मैं मेरे ही देश से ,समाज से, शहर से निष्कासित हूं
कदाचित मुझे जीने का अधिकार नहीं है,
क्योंकि मेरे पास रोजगार नहीं है।
पलक के खुलते ही,
मानो धर दबोचेगी उसे,
यह चिंता फिर कचोटेगी उसे,
कि
मेरे परिवार का पोषण कैसे होगा।।
एक चिंता रह-रहकर
कचोटती है मुझे भी,
उस युवक को जागृत करने के लिए
कोई हाथ अगर नहीं बढ़ा तो,
मेरे देश का पोषण कैसे होगा?
युवाअगर नहीं उठा तो,
कश्ती पहुंचेगी नहीं किनारे पर,
मझधार में रह जाएगी।
प्रगति की ये धारा,
कहीं पीछे तो ना मुड जाएगी??
अनिवार्य है अनिवार्य है_युवा को जगाना
नहीं देख सकते ,
हीरे का ,
यूं पत्थर पर सो जाना।।