सत्येन्द्र शर्मा ‘तरंग’ – नारी/महिला – साप्ताहिक प्रतियोगिता

घर की दहलीज पर खड़ी राह को निहारती,
सीने में तड़फन आंखों में उसकी नमी पसारती।
स्वयं के आस्तित्व का अर्थ ही न समझी जो कभी,
महिला के अधिकारों को वो महिला क्या पहचानती।

बचपन से तारुण्य तक न जाने किस डर से कांपती,
जिन्दगी की राह पर सफर करती रही हांफती हांफती।
चांद तारों को सदा घर की छत से ही देखा उसने,
समन्दर से आसमां का नजारा कैसे वो पहचानती।

शब्द सीखे ही थे अभी जुबां छीनने लगे अपने,
तरुणाई आई भी नहीं थी प्रतिबन्धित हो गये सपने।
बसन्ती मौसम में भी अपने परों को जो स्वयं काटती,
युवावस्था की लहरों की चंचलता को कैसे वो भांपती।

मर्यादित जीवन का ही यदि उस पर भार होता,
सह लेती यदि जीवन का यही सम्पूर्ण सार होता।
संस्कार रूपी बन्धनों में जकड़ी जो मुस्कान बांटती,
आदर्शो और अनुबन्धों के अन्तर को कैसे वो आंकती।

एक जीवन में अनेक जीवन जी लेती है वो,
परिवार की खातिर अपनी इच्छाओं को पी लेती वो।
एक दिल के अन्दर अनेकों दिलों को जो पालती,
धरा की सहिष्णुता को आदर्श अपना वो मानती।

आसमां में उड़ती तरंगों की ऊंचाई छू सकती है वो,
नभ-तल-जल में पराक्रम की अनुभूति हो सकती है वो।
परिवार हेतु जीवन अपना न्योछावर जो कर डालती,
विपरीत परिस्थितियों में साथ देने का वादा वो मांगती।

मन्दिर की देवी सा मान दो ये नहीं चाहा कभी उसने,
मूरत बनाकर उपासना करो ये नहीं चाहा कभी उसने।
प्रकृति के अनमोल वरदान जैसा सम्मान मांगती,
एक महिला बस अपने ‘अस्तित्व का स्वाभिमान’ मांगती।