“””क़ुदरत, इंसान और कोरोना “””
ज़रा सी कैद में तुम्हे घुटन होने लगी,
मैंने देखा है कि तुम पँछी पालने के शौकीन हो ।
यूंही हवाएं जहरीली नही होने लगी,
क़ुदरत के कत्ल में तुम सब गुनहगार हो ।
घोलकर ज़हर खुद ही इन फिज़ाओ में ,
अब तुम मुँह छुपाए घूमते हो ।
कल तक शहर में तरक्की लगी,
आज गाँव में जिंदगी तलाशते हो।
क्या खूबसूरत नज़ारा था यहाँ ,अब कोरोना की नज़र लगने लगी,
आज अपने ही शहर को तुम मंज़र होते देख रहे हो ।
कहर बरसा आसमान से तो परेसानी होने लगी ,
क्यो भूल गए थे कि तुम इंसानियत-आदमियत की मूरत हो ।
ये कोरोना की तबाही का मंजर ,दुनियां की नज़र भारत पर लगी,
बात मानो……सरकार हमारी खैरख्वाह ,बदख्वाह नही,घरों में रहो ,
विश्व पटल पर ये दिखाओ …… तुम सब एक हो ।
कोरोना भी क्या बिगाड़ेगा उस मुल्क़ का ,
जहां पुलिस और डॉक्टर के रूप में भगवान हो ।
मुल्क अपना आज भी फल्के हफ़्तुम पर हो ।
वहाँ दान अस्पताल,स्कूल में देना मीत, जहाँ संकट के समय मन्दिर-मस्जिद के दरवाजे बंद हो ।
शोर कभी मुश्किलों को आसान नही करता ,उलझने सब खामोशी की तह में छुपने लगी,
ये दौर भी गुजर ही जायेगा मीत, क्योंकि तुम सब अपने पैरों को घरों में थामें हो ।।।