ü कोट टाई नहीं धोती कुर्ता को दे सम्मान ü कब समझेंगे हम कौटिल्य का अर्थशास्त्र ..
देश का हर आदमी महंगाई से त्रस्त दिख रहा है। रुपया अपना सम्मान खोता जा रहा है। डॉलर रोद्र रूप दिखाता चला जा रहा है। सेंसेक्स उठापटक पर आमादा है। विकास दर और जीडीपी समय समय पर चिंतित करते ही रहते हैं। महंगाई दर कैसे नियंत्रित हो इसका कोई समाधान फिलहाल तो नहीं ही दिखाई देता है। ऐसे में यदि हमें रुपये का अवमूल्यन और कीमतों मे अनियंत्रित वृद्धि को वास्तव मे नियंत्रित करना है तो हमें एक दीर्घगामी नीति बनानी होगी जो हमारी घरेलू उत्पादकता और स्वयं के संसाधनो को दृष्टिगत रख कर निर्धारित की गयी हो । मेरा मानना है यदि भारत मे गरीब और अमीर का फासीला बढ़ता है तो यह अपराध को बढ़ाने वाला फैसला होगा। बड़े बड़े शॉपिंग माल शहर की खूबसूरती तो बढ़ा सकते हैं, किन्तु गरीबी दूर नहीं कर सकते। । हमें अब अपनी आर्थिक सोच में मूलभूत बदलाव लाने की बेहद सख्त जरूरत है।
पिछले 500 वर्षों से दुनिया में जिस आर्थिक व्यवस्था का बोलबाला रहा है उसे बदलने के लिए भारतीय चिंतन की रोशनी में अर्थनीति, राजनीति और समाजनीति के पुनर्गठन पर बल दिया जाना चाहिए। भारतीय दर्शन, मूल्य और जीवन आदर्श के अनुरूप जीवनशैली अपनानी होगी।
इसके लिए पहले एक संसोधित ‘राजनीति और अर्थनीति को परिभाषित करने और फिर उसे साकार करने की जरूरत है और पिछली शताब्दी से चालू केन्द्रीयकरण, एकरूपीकरण बाजारीकरण और अंधाधुंध वैश्वीकरण को ही सभी समस्याओं का रामबाण इलाज माने जाने की मानसिकता से हटकर विकेन्द्रीकरण विविधिकरण स्थानिकीकरण और बाजार मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने से ही आज की आर्थिक मंदी, अपसंस्कृति और सांस्कृतिक पतन की विभीषिका से बचा जा सकेगा। मेरे आंकलन है की समता और एकात्मता के आधार पर देशी सोच और विकेन्द्रीकरण को आधार बनाकर आर्थिक राजनैतिक व्यवस्था का पुनर्गठन ही आज की विषम परिस्थितियों से पार पाने का रास्ता साबित होगा। वर्तमान परिस्थितियों मे अर्थव्यवस्था को सुधारने केलिए जो कदम उठाए जाएंगे वह “शॉर्ट टर्म गैन ” तो दे देंगे किन्तु हमें अपने कुटीर उद्योगों पर आधारित एक समानांतर अर्थव्यवस्था को भी फलीभूत करना होगा। विदेशी निवेश का ज़्यादा पक्षधर होना भी भविष्य के लिए बेहतर नहीं होगा। इसको भी थोड़ा समझते हैं। सरकार यह दावा करती रही है कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश आने से रोजगार सृजन होगा। पर जिसे थोड़ी सी भी दूसरे देशों में खुदरा क्षेत्र में बड़े कारपोरेट घरानों के आने के असर के बारे में पता होगा वह यह बता सकता है कि यह दावा अपूर्ण सत्य है। हकीकत तो यह है कि खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आने से न सिर्फ रोजगार सृजन कम होगा अपितु वास्तविक बेरोजगारी और ज्यादा बढ़ेगी। विदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल का एक प्रभाव देखिये कि कुछ समय पहले जो डालर रू 43 के आस पास था वह आज रू 68 के उपर है जबकि सबसे ज्यादा मंदी का शिकार अमेरिका है भारत नही। इसका अर्थ है कि अमेरिकी कंपनी तो भारत में अच्छा व्यापार कर रहीं हैं। संकट भारतीय कंपनियों पर हैं। यह मंदी भारतीय कंपनियों को निगल रहीं हैं। भारतीय नागरिेक जितना ज्यादा अपने सामानों का इस्तेमाल करेंगें उतना रूपया मजबूत होगा। आईएमएफ और संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि दुनिया भर में आर्थिक मंदी धीरे-धीरे पैर पसार रही है। लाचार ये संस्थाएं सभी देशों से गुहार लगा रहे हैं कि मिलकर इस मंदी का मुकाबला करें। कमरतोड़ महंगाई रुक-रुक कर हो रहे सुधार बढ़ी हुई ब्याज दरें और नकारात्मक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक माहौल से आसार अच्छे नहीं दिख रहे हैं। आर्थिक संकट के चलते चीन के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में भी गिरावट आई है। चीन के प्रॉपर्टी बाजार में भी फिलहाल मंदी का दौर है। यूरो जोन की खस्ताहाल इकोनॉमी ने संकट और बढ़ा दिया है। 2008 -09 की आर्थिक मंदी के बाद कई समस्याएं अनसुलझी रहीं। इसके कारण प्रमुख विकसित देशों की आर्थिक हालत खस्ता है। विकसित देशों ने ऐसे कदम उठाए जिससे संकट और गहरा गया। अमेरिका और यूरोप के संकट के असर से विकासशील देशों में भी विकास की रफ्तार कुंद पड़ गई। एकल (सिंगल) ब्रांड खुदरा में विदेशी निवेश की अनुमति सर्वप्रथम 51 प्रतिशत की सीमा तक फरवरी 2006 में प्रदान की गई। देश के खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का पहला अनुभव तभी आ गया था जब थोक व्यापार की आड़ में ‘कैश एण्ड कैरी’ थोक व्यापार में विदेशी निवेश को अनुमति दे दी गई थी। नवंबर 2011 में सिंगल ब्रांड खुदरा में विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दिया और मल्टी ब्रांड में भी 51 प्रतिशत की सीमा तक विदेशी निवेश को अनुमति प्रदान करने का निर्णय ले लिया। सिंगल ब्रांड में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश का मतलब है कि एक ब्रांड वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने ब्रांड के नाम से 100 प्रतिशत स्वामित्व वाले स्टोर खोलने की अनुमति देना । सिंगल ब्रांड स्टोर में कंपनी अपने एक ब्रांड की तमाम वस्तुएं बेच सकती हैं। ये वस्तुएं इन कंपनियों द्वारा स्वयं निर्मित हो सकती हैं, अथवा उनके लेबल वाली किसी अन्य उत्पादक द्वारा निर्मित वस्तु। इसके अतिरिक्त वे एक ब्रांड की अपनी सेवाओं की भी बिक्री कर सकती हैं। उत्पादों के क्षेत्र में पिज़ा, हट, मैक्डाॅनल, के.फ .सी. फिलिप्स, सैमसंग, सी.डी., एल.जी., नोकिया ,वाॅक्सवैगन, निरचन, टोयटा, बी.एम.डब्ल्यू कुछ प्रमुख ब्रांड हैं।
खाद्य क्षेत्र में पिजा हट, के.एफ.सी., मैक्डाॅनल इत्यादि श्रंखलाओं के 100 प्रतिशत स्वामित्व वाले रेस्टोरेंट खुलने के कारण आम तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था पर और विशेष तौर पर इस क्षेत्र में संलग्न छोटे उद्यमियों पर भारी दुष्परिणामों की आशंका है। यदि हम दुनिया के अन्य देशों के अनुभव देखें तो पता चलता है कि इन श्रंखलाओं के आने के बाद इंग्लैंड मे चलने वाले छोटे रेस्टोरेंट और बिक्री केंद्र काफी मात्रा में बंद हो गये, जिसके कारण जो लोग वहां अपना छोटा-मोटा व्यवसाय खाने-पीने की दुकान के रूप में चलाते थे, बेरोजगार हो गये। सर्वविदित ही है, इंग्लैंड में बसे भारतीय इस प्रकार के काम हाथों में ज्यादा संलग्न थे। कोई कारण नहीं कि यह अनुभव भारत में दोहराया न जाये। हम जानते हैं लाखों लोग खाने पीने की दुकानों खाद्य वस्तुओं की दुकानों जैसे ढाबों, चाईनीज और दक्षिण भारतीय व्यंजनों की दुकानों/ठेली और इसके अतिरिक्त आलू टिक्की, चाट पापड़ी के खोमच्चों में रोजगार पा रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इस क्षेत्र में आने से ये सभी रोजगार गायब हो सकते हैं।
2006 को बनाये गये फूड सेफ्टी एण्ड स्टैंडर्ड एक्ट के अनुसार काफी कडे नियम लागू किये गये हैं। जिनको छोटे विक्रेता और ठेले की चाट पकौड़ी वाला निभा नहीं सकता। एक निश्चित रणनीति के तहत ऐसे कानून ऐसे समय में बनाये गये हैं, जब विदेशी कंपनियों को भी इस क्षेत्र में आमंत्रित किया जा रहा है। ऐसे में इन छोटी खाने पीने की दुकानों पर यह आरोप मड़ा जायेगा कि चूंकि वे मानकों पर पूरे नहीं उतरते हैं इसलिए उनका बंद होना ही ठीक है। इस प्रकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुला बाजार उपलब्ध हो जायेगा। आज विदेशों से सस्ते चीनी माल की बाढ़ को हम रोक नहीं पा रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि आज इलैक्ट्रानिक्स के क्षेत्र में हम अपने ब्रांड विकसित नहीं कर पाये। हमारे देश में आज मोबाईल कनैक्शन 50 करोड़ से अधिक हैं लेकिन आज भी हमारे बाजारों में भारतीय ब्रांडों की विशेष उपस्थिति नहीं हैं, विशेषज्ञों का मानना है कि एक दिन शायद तो टेलीकाम उपकरणों का आयात कहीं तेल के आयातों के बिल को भी पार कर जायेंगा । इसी प्रकार वस्त्र/परिधान उद्योग मे लागत कुषलता के आधार पर भारतीय वस्त्र उद्योग ने अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में पिछले कुछ समय से अपनी पकड़ बनायी हुई है और बड़ी मात्रा में भारत से वस्त्रों का निर्यात विदेषों में किया जाता है। एफ़डीआई के बाद यह प्रवृत्ति बदल जायेगी और भारत में विदेषी ब्रांडों के वस्त्रों एवं परिधानों का आयात शुरू हो जायेगा। 100 प्रतिषत विदेषी निवेष वाले विदेषी ब्रांडों जैसे रिबोक, नाईक, एडीदास इत्यादि के पूर्ण स्वामित्व वाले स्टोर खुलने से विदेषों से भारत में वस्त्र आयात शुरू हो जायेगा। सरकार एकल और बहु ब्रांड खुदरा व्यापार के फायदों को गिनाने का काम लगातार कर रही है, लेकिन इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से देष में आयातों की बाड़ के विषय पर सरकार मौन दिखाई देती है। सरकार द्वारा एक भ्रामक प्रचार किया जा रहा है कि विदेषी कंपनियों को अनिवार्य रूप से लघु और कुटीर उद्योगों से न्यूनतम 30 प्रतिषत खरीद करनी होगी लेकिन अंतर्राष्ट्रीय विषेषज्ञ भी यह बात मानने के लिए तैयार नहीं हैं उनका कहना है कि सरकार का यह निर्णय विष्व व्यापार संगठन के स्तर पर मान्य नहीं होगा, क्योंकि भारत सरकार ने विष्व व्यापार संगठन में एक बाध्यकारी समझौता किया हुआ है जिसके अनुसार सरकार देषी और विदेषी स्रोतों के बीच कोई भेद-भाव नहीं कर सकती। एक बार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में आने की अनुमति मिलने के बाद यदि विष्व व्यापार संगठन से इस प्रकार का निर्देष आता है तो भारत के पास अपने लघु उद्योगों को बचाने को कोई रास्ता नहीं बचेगा।
सिर्फ विदेशी निवेश पर आधारित अर्थव्यवस्था को समझने के लिए इसके इतिहास को भी कुछ समझना होगा । राजनीति अर्थनीति और संस्कृति को कारपोरेट हितों के लिए निर्देशित और नियंत्रित करने की गति द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद काफी तेज हो गई। एक ध्रुवीय दुनिया का दंभ पालने वाले अमेरिका ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बेरोक-टोक अपनी कारपोरेट हितैषी नीतियों को दुनिया पर थोपना शुरू किया। लेकिन यह प्रक्रिया अब अपने ही बोझ के कारण बिखर रही है। सोवियत रूस और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध के कारण इसमें थोड़ी-बहुत शिथिलता आई थी वह सोवियत रूस के विखंडन के बाद पूरी तरह दूर हो गई। बहुत से अर्थशास्त्रियों ने पश्चिमी अर्थशास्त्र की संकल्पनाओं की असफलता और असमर्थता को चिन्हित किया है। गॉधी जी पश्चिम के इस पोररे मॉडल को ही असफल माना करते थे। समझ नही आता प्रधानमंत्री विकास के लिए पाश्चात्य के असफल मॉडल को क्यों अपना रहें है। विश्व के प्रमुख शिक्षण संस्थान कैम्ब्रिज आक्सफोर्ड बोस्टन जहा हैं वह सभी मंदी के शिकार है इन संस्थानो से शिक्षित छात्रों ने बड़े बड़े पैकेज लेकर बड़े बडे बैंको और कंपनियों को डूबा दिया। पूरा विश्व मंदी का शिकार हो गया। जब यह अर्थव्यवस्थाए डूब रहीं थी तब ये विशेषज्ञ क्या झक मार रहे थे ये लोग सिखाते है कि अगर आपके पास 50 रू है तो 500 रू का कर्ज लेकर ऐश से जीओ। भारतीय संस्कृति कहती है कि कुछ हिस्सा जोड़कर रखना चाहिए। प्रतिकूल समय में काम आयेगा। अब वर्तमान स्थिति मे मंदी से लुटे पिटे देश एफ़डीआई और सेंसेक्स की उठापटक के द्वारा भारत के लोगो के उसी जुड़े हिस्से को लूटने पर आमादा होने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री स्वयं एक अर्थशास्त्री हैं किंतु उनका अर्थशास्त्र सिर्फ उच्च विकासदर प्राप्त करने तक सीमित रहता है। उच्च विकासदर के द्वारा निवेशक तो आते ही रहेंगें। यदि सिर्फ जीडीपी को विकास आधार माने तो समझते हैं कि ये कैसे बढ़ती है। यदि किसान खेत मे केमिकल फर्टिलाइसर डालता है तो जीडीपी बढ़ती है किन्तु यदि साधारण प्राकृतिक खाद से स्वास्थ्य वर्धक खेती करता है तो जीडीपी नहीं बढ़ती। केमिकल से भरी फसल खाकर अगर आप बीमार हो जाएँ और अस्पताल मे इलाज़ कराएं तो जीडीपी बढ़ती है। किन्तु अगर आयुर्वेद के द्वारा देसी इलाज़ से ठीक हो जाएँ तो जीडीपी नहीं बढ़ती। आगे यही क्रम सिर्फ भौतिकतावादी चीजों के उपभोग के द्वारा जीडीपी को बढ़ाने का काम करता रहता है। हमारी सांस्कृतिक विरासत बहुत मजबूत है। बहुत बड़ी बड़ी थीसिस लिखने वाले महाविद्वान सामान्य बातों को क्यों नहीं समझते हैं। शायद हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र का महत्व और ज़्यादा चोट खाने के बाद ही समझेंगे?
(लेखक भारतीय दर्शन के चिंतक हैं )
अमित त्यागी- (भारतीय दर्शन के चिंतक, विधि विशेषज्ञ एवं स्तंभकार )
आपके सारगर्भित लेख विभिन्न राष्टिय पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहें हैं। आपको आई0आई0टी0, दिल्ली के द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। ‘रामवृक्ष बेनीपुरी जन्मशताब्दी सम्मान’ एवं ‘प0 हरिवंशराय बच्चन सम्मान’ जैसे उच्च सम्मानो के साथ साथ आपको दर्जनों अन्य सम्मानों के द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। लेखक का 2009 में प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह की अघ्यक्षता में महात्मा गॉधी द्वारा रचित पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ पर विशेष आलेख भी प्रकाशित हुआ है।