सुगबुगाता हुआ काँप रहा है
सडांध मारती नालियाँ
चिमनियों से उडता धुआँ
और झुकी हुयी पेडों की टहनियाँ
सलामी दे रहीं हैं
शहर के कूबड पर सरकती गाडियों को ,
और वहीं इमारत की ऊपरी मंजिल से
काँच की खिड़की से झाँकती एक लड़की
किताबों में छपी बैलगाड़ियाँ देख रही है
जो शहर के कूबड पर रेंगती थीं
किनारे खड़े बरगद के पेड़
बहुत से भाले लिये
सलामी दे रहे होते थे।
कुछ नहीं बदला आज तक
ना सड़क के कूबड़ जैसे हालात
ना उस पर दौड़ती /रैंगती गाड़ियाँ
आज भी सब वैसा ही है
बस आज वक़्त ने
आधुनिकता की चादर ओढ़ ली है ।
(दीप्ति शर्मा)