“खामोशी-से,
चंद-अल्फाज,
पन्नों-को,
मूक-ज़ुबाँ दे जाते हैं!
तो-कुछ,
गुमनामियों-की,
दहलीज़-से,
रिहाई-पाना चाहते हैं!
सोचता-हूँ-
इन्हें, टटोलूं,
बटोर-लूँ, बाँट-लूँ ,
ख़ुद-में, तुम-में, सब-में!
बेतरतीब-थिरकने-दूँ-
जेहन-के,
कमरे-में,
हर, आँगन-में!
बहने-दूँ-
बेइन्तिहा,
रग-रग-में,
ताज़ा-राग बनकर!
जलने-दूँ-
बेबाक-इन्हें,
क्रान्ति-की,
प्रचण्ड-आग बनकर!
सच-है-
गुलामी-की,
जंजीरों-में,
‘शब्द’, सांसें-नहीं, ले-पाती!
बेशकीमती-हैं-
‘आजादी’,
कलम-की-चाटुकारिता,
इन्हें, ज़रा-भी, नहीं-भाँती!!”__
___दुर्गेश वर्मा