“गवाह बना, कलम-स्याही-को,
लगाया शर्त,
कोरी-किताब के प्रत्येक-पृष्ठों-से-
‘क्या उतार पायेगा खुद-में,
इंसानी-वजूद-हुबहू?’
बेबाक-बोल-उठा-किताब,
‘ जिस रब-ने तराशा, तेरा-वजूद,
रखा, संत्रास-से, तुझे-महफूज,
कर रद्दोबदल, उसके-ही-आमूल-चूल-नियमों-में,
क्या दे पाया, तू-उसे-सुकून??’
‘चल-हट!
मनोभ्रंश-छली-मानस!
है तेरी, बिसात ही क्या!
होंगे, कई तेरे पैरोकार,
होंगे, बहुतेरे-चाटुकार!
पर, मेरे-शब्दों का प्रमाचार,
रखता, प्रत्यक्ष-रब-से सरोकार,
करता उससे नित-साक्षात्कार,
पेशतर-सुधार, आचार-विचार व निज-व्यवहार,
जा दर्पण में, निस्तेज-चेहरा-निहार!!”_____
___ _दुर्गेश वर्मा