साहित्य और पत्रकारिता

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कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है अर्थात् साहित्यिक परिणति ही साहित्य की वह लोकमंगल कि धारा है, जिससे समाज के इतिहास का पता चलता है और उससे विकास तथा प्रगति की धारा बनती है, अन्यथा दिशाहीन और अस्पष्ट साहित्य मानव को यथार्थ से बहुत दूर ले जाता है। सोचा-समझा जाए तो पत्रकारिता की विधा को भी साहित्य के अंतर्गत माना जाता है। बहुत से विचारको ने पत्रकारिता को तात्कालिक साहित्य की संज्ञा भी दी है। विचार किया जाए तो समय-समय पर विभिन्न साहित्यकारों ने पत्रकारिता में अपना योगदान और पत्रकारों का मार्गदर्शन भी किया है।

वास्तव में पत्रकारिता भी साहित्य की तरह समाज का एक ऐसा दर्पण है, जिसमें समाज में घटित समस्त घटनाओं को देखा व जाना जा सकता है। यदि साहित्य और पत्रकारिता के दर्पण पर धूल जम जाय या वह धूमिल होने की स्थिति में हो तो इसमें सुधार करने या उसमें आई कमियों को दूर करने की जिम्मेदारी इससे जुड़े लोगों के साथ-साथ उस समाज के बुद्धीजीवी वर्ग] चिंतनशील लोग की भी है, जो इससे जुडे हुए है, क्योंकि यही सब लोग मिलकर एक सभ्य समाज का निर्माण भी करते हैं। इस दृष्टि से साहित्यकार और पत्रकार को समय-समय पर अपना महत्वपूर्ण अभिमत प्रकट करना जरुर करना चाहिए, लेकिन अपने व्यक्तित्व को दलबंदी से बचा कर करना चाहिए, क्योंकि यही एक रास्ता है, जो उसे कर्मठ और लगनशील बनाने के साथ-साथ ऊंचाइयों पर ले जाता है। देखा जाए तो पत्रकारिता की विधा से जब साहित्य जुड़ता है, तो पत्रकारिता भाषा, समाज आदि के स्तर पर समृद्ध होती है और सामाजिक सरोकारों से भी सहज रूप से जुड़ जाती है। अब जरुरत है तो सिर्फ इन दोनों के बीच तालमेल बनाए रखने की और अच्छे से समझने की।

डा. नीरज भारद्वाज