शिक्षकों का दायित्व

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( डॉ. सुधांशु शुक्ला )  भौतिक युग की कृत्रिमता, यांत्रिकता ने भारतीय परिवेश को परिवर्तित एवं परिवर्तनशील बना दिया है। समय के साथ-साथ  नए-नए प्रयोगों और  दृष्टिकोणों ने हर व्यवसाय एवं पद स्वरुप को बदल दिया है। अब कोई भी कार्य अपने प्राचीन तौर-तरीकों से करना असंभव  सा हो गया है। जब  ऐसा परिवर्तन समाज में आता है, तब समाज के शिक्षित, सुशिक्षित वर्ग का दायित्व और भी बढ़ जाता है। दायित्वों का भार  उसे अधिक संयमित  होकर निभाना पड़ता है। यह बात शिक्षक वर्ग पर अधिक लागू होती है। समाज का निर्माता, राष्ट्र का मार्ग-दर्शक, स्वस्थ  परंपराओं के नियामक  शिक्षक को ओर भी अधिक सावधान होने की जरूरत पड़ती है।

प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या विमुक्तये रहा अर्थात्  विद्या वही है, जो मुक्ति दिलाए। आज शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या  नियुक्तये हो गया है अर्थात् विद्या वही जो नियुक्ति दिलाए। इस दृष्टि से  शिक्षा के  बदलते अर्थ ने समाज की मानसिकता को बदल दिया है। यही कारण है कि आज समाज में लोग केवल  शिक्षित होना चाहते हैं, सुशिक्षित नहीं बनना चाहते। वे चाहते हैं कि ज्ञान का सीधा संबंध उनके अर्थोपार्जन से ही है। जिस ज्ञान से अधिक से अधिक धन और उच्च पद को ग्रहण किया जाए वही शिक्षा कारगर है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि आज अभिभावकों की सोच अपने बच्चों के प्रति अधिक संवेदनशील बनती चली जा रही है। वे स्वयं बच्चों को चाँद-तारे, सुख-सुविधाओं से भरकर कर्तव्य विमूढ़ बनाते जा रहे हैं। इससे बच्चों में समाज में संघर्ष करने की भावना खत्म होती जा रही है। वे कठिनाइयों का सामना करना नहीं चाहते। हरदम अभिभावक उनकी सहायता, मदद के लिए तैयार रहते हैं, उन्हें स्वयं कुछ नहीं करने देना चाहते।

शिक्षक का कर्तव्य छात्रों को केवल शिक्षित करना ही नहीं है, अपितु उन्हें संस्कारी भी बनाना है। उनके अंदर केवल शब्द ज्ञान ही नहीं भरना है बल्कि उसे नैतिकता, कर्तव्य परायणता, सजगता का पाठ पढ़ाना अत्यंत आवश्यक हो गया है। यदि अध्यापक यह कार्य नहीं करता तो वह सच्चे अर्थों में अध्यापक कहलाने योग्य ही नहीं है। अध्यापक का कार्य केवल पाठ पढ़ाना ही नहीं होता है, अपितु पाठ को पढ़कर या पढ़ाकर उसमें आई उद्देश्यात्मकता, नैतिकता आदि को समझाना-सिखाना भी उसी का कर्तव्य  होता है। पाठ को पढ़कर समझने की सार्थकता तभी है जब उस ज्ञान को व्यवहार में भी लेकर आया जाए। बच्चे अपने प्रथम गुरू अर्थात् अभिभावकों से ही सच बोलना सीखते हैं। जब वे छोटी-छोटी बात पर माता-पिता को झूठ बोलते देखते हैं तो स्वतः ही वे झूठ बोलने लग जाते हैं। गांधी जी ने ‘सत्य के प्रयोग पुस्तक में सही बताया है कि, ‘जो कार्य हम स्वयं करते हैं, उस कार्य को बच्चों को करने से मना कैसे कर सकते हैं। बच्चों पर उसका प्रभाव नहीं पड़ेगा।

शिक्षक का कर्तव्य बन जाता है कि अपने बच्चों को केवल पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित न रखे। पुस्तकीय ज्ञान तो मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करने का साधन होता है। अंकों को पाने का एक उपक्रम होता है। लेकिन विभिन्न चीजों से जोड़कर हम उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं। उन्हें अच्छा नागरिक और समाज दर्शक बनाकर समाज की छोटी से छोटी चीज से जोड़ें। उन्हें हर उस बात, घटना, विचार, भावना को समझाएं जिससे उन्हें अपने परिवेश, समाज से जुड़ने और समझने में मदद मिले।

एक अच्छे अध्यापक का व्यवहार आज के संदर्भ में मित्रवत् होना चाहिए। मित्रवत् व्यवहार होने पर छात्र अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को खुलकर प्रकट कर सकते हैं। अध्यापकों से भय का भाव उन्हें अपने से दूर करता चला जाता है। वे कद और भार में तो शारीरिक रूप से बढ़ते रहते हैं। लेकिन मानसिक रूप से उनका विकास नहीं होता  हैं। इससे शिक्षक द्वारा दिया गया ज्ञान व्यर्थ ही जाता है। प्रायः शिक्षक भी डाँट-फटकार कर समझाने का प्रयास करता है। जिससे डर के कारण बच्चें का विद्यालय जाने का मन नहीं करता है। वे विद्यालय जाने से कतराने लगते हैं। घर से विद्यालय जाने की बजाय कहीं ओर ही घूमने-फिरने तथा समय काटने पहुँचते हैं। ऐसे हालात में बच्चों का मन कैसे पढ़ाई में लगेगा। पढ़ाई बोझ लगने लगेगी, विद्यालय से दूरी बढ़ने लगेगी।  दूरी का भाव खिन्नता, कुंठा और तनाव को फैलाता है। बच्चे उग्रता में  आकर अमानवीय व्यवहार करने लग जाते हैं। यही  कारण है कि आज हम समाज में विद्यार्थियों द्वारा अपने ही साथियों को मारने, लूटने से लेकर जघन्य कार्यों में लीन देखते हैं। वे अपने साथियों से ही अमानवीय व्यवहार करते हुए संकोच नहीं करते हैं। यौन शोषण, हिंसा का वातावरण फैलाने लगते हैं। शिक्षक का मित्रवत् व्यवहार छात्रों के मन में आई भटकन को दूर करता है, उन्हें भ्रमित होने से बचाता है। जीवन संजीवनी का कार्य करने वाले अध्यापकों का प्रभाव निश्चित रूप से गमुराह छात्रों की दशा और दिशा बदलने में कारगर सिद्ध होता है।

शिक्षा जगत् में प्रायः जब छात्र अपने अध्यापकों को ही परस्पर लड़ते, झगड़ते निंदा करते देखते हैं। उनका यह व्यवहार छात्रों को दुर्व्यवहार ही सिखाता है। वे भी परस्पर ऐसा व्यवहार करने लग जाते हैं। आपसी मन-मुटाव का प्रभाव छात्रों की शिक्षा पर भी पड़ता है। निश्चित रूप से छात्रों का परीक्षा परिणाम तो प्रभावित होता ही है साथ ही उनकी मानसिकता पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। शिक्षक का चरित्र सबसे अधिक प्रभाव छात्रों पर डालता है।

शिक्षक की वेशभूषा का छात्रों पर अत्यंत प्रभाव पड़ता है। उनकी साफ़-सुथरी मर्यादित वेशभूषा छात्रों के मन को संयमित करने का कार्य करती है। जब शिक्षक ही फैशनग्रस्त होकर घूमते दिखाई देंगे तो छात्रों का मन निश्चित  रूप से पढ़ाई में नहीं लगेगा। वे उनकी नकल करने का प्रयास करेंगे। कई बार विद्यालयों, महाविद्यालयों में देखा जाता है कि कुछ अध्यापक और अध्यापिका ऐसी वेशभूषा पहन लेते हैं, जो फूहड़ता और नग्नता को दर्शाती है। वे स्वयं अनादरित होते हैं और बच्चों के मन को भी नहीं भाते हैं। समाज में उनका यह रूप निश्चित रूप से अध्यापकीय-छवि को धूमिल करने का कार्य करता है।

अध्यापकों को अधिक जिम्मेदारी को वहन करना पड़ता है। इस भूमिका  को अधिक सार्थक बनाने के लिए सरकार को चाहिए कि वह कम से कम ऐसा वेतनमान तो इन्हें दे जिससे यह पारिवारिक जीवन अच्छे ढंग से जी सकें। अर्थ के अभाव में असंतोष की अराजकता से बचा जा सके। इनका पूरा ध्यान केवल धर्म जैसे कार्य में लगे।  समाज में जब इनका जीवन स्तर बढ़ेगा तभी ये समाज की सच्ची सेवा एकाग्रता से कर पायेंगे। कहा भी गया है कि, भूखे पेट भजन न होई। आज भी हम अध्यापक को वही प्राचीन ब्राह्मण रूप में देखते हैं, जो गुरूकुल में शिक्षा दे रहा है, जिससे पास शिक्षा देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जब समाज परिवर्तित, परिवर्तनशील हुआ है। ऐसे में शिक्षक को भी सुख-सुविधाएं प्रदान होनी चाहिए, जिससे इस सेवा कार्य में और लोग आए। यही कारण है कि आज शिक्षक  की नौकरी करने के लिए लोगों का अभाव होता चला जा रहा है। पढ़ा लिखा समाज अन्य पदों पर कार्य करना चाहता है। वह सोचता है इस कार्य से करने में बचता ही क्या है? समाज में शिक्षकों  की न्यूनता का भाव यह दर्शाता है कि उनके कंधे पर जिम्मेदारियों का बोझ अधिक है, वे अपने कर्तव्य से विचलित न हो उनकी एकाग्रता न टूटे इसलिए समाज को भी एक बार फिर से उन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

डॉ. सुधांशु शुक्ला

हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली