(डॉ. सुधाशु कुमार शुक्ला) जहाँ नज़र दौड़ाओं वहीं निराशा, उदासी का वीरान माहौल नज़र आता है। सब अपने में सिमटे-चिपटे-लिपटे नज़र आते हैं। किसी को किसी की खब़र नहीं, पड़ोसी का नाम तक पता नहीं वाला भाव अजगर की तरह फैलता जा रहा है। अगर अपना काम हो तो हम खींसे नपोरते नज़र आते हैं, वरना साथ वाले को भी राम-राम करने पर लुटते नज़र आते हैं।
अपने एकाकी जीवन में लिपटने के कारण ही चारों ओर फैली अहिंसा, बलात्कार, बेईमानी, लुटपाट का कारण बनता चला जा रहा है। कहीं कुछ भी घटित हो जाए परंतु हमारे कान पर जूँ तक नहीं रेंगती हैं। इसे कहते हैं- सन्नू की। सन्नू की का भाव मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समाज का है। जिसने समाज की धज्जियाँ ही उड़ा दी। अपनी सुविधाओं, अपनी दृष्टि से अकेले जीवन जीने का भाव रखने वाले यह समाज का वर्ग बुद्धिजीवी होते हुए भी मानवीयता के मूल्यों को खोता जा रहा है। यह आदेश दे सकता है, अपनी सोच दे सकता है। लेकिन व्यवहार में नहीं ला सकता है। मौकापरस्ती अवसरवादिता का जामा पहने ऊपर से साफ अंदर से मैला यह वर्ग गिरगिट की तरह रंग बदलता नज़र आता है। इस वर्ग ने अकेले चलना जब से शुरु किया भस्मासुर की तरह अपने आप को भस्म करने लगा। परिवार अकेले बन कर रह गए। अपने माता-पिता और भाइयों को छोड़कर चापलूस मित्रों में चले गए। अपनी सास-सास न लगी, पार्क में सभी को अम्मा जी कहती दूसरी औरतों के चरण छूती फिरी। दिखावे की जिंदगी, कृत्रिम जीवन शैली को अपनाते हुए, स्टेटस की चर्चा करते-फिरते नज़र आते, ये लोग समाज का उत्थान नहीं कर सकते। यही कारण है कि बलात्कार, लूटपाट जैसी घटनाएँ यहीं अधिक घटती है? कारण साफ नज़र आता है। सब अकेले में एक दूसरे से धोखा देते नज़र आते हैं। जब तुम दूसरों को धोखा दे सकते हो तो तुम्हे भी तो कोई धोखा दे सकता है। सेर को सवा सेर मिलते ही हैं।
जीवन को दर्शाने वाला, सीख देने वाला वर्ग हमें फुट पाथो पर, चालो में, झुग्गियों में मिल जाता है। जो लाख बार आपस में लड़ते झगड़ते नज़र आते हैं, परन्तु उनकी जात एक होने के कारण दुख में साथ देते नज़र आते हैं। उनकी जात गरीबी की है। सब एक बिरादरी के होने के कारण किसी की बीमारी में चंदा दे देकर इलाज करवाते नज़र आते हैं। यहाँ दिखावे नाम की कोई जरूरत ही नहीं है। एक साथ किशोरियाँ नल के पास नहाती नज़र आयेगी, परन्तु बगल में बैठे लड़के नज़र उठाते नज़र नहीं आयेगें। एक की बहन नहीं नहा रही है, वह अपने समाज की बहन है, लड़की है। अगर कोई गलती से बुरी नज़रें, बुरी हरकत करता नज़र आया तो वह सभी के द्वारा पिटता भी नज़र आता है। सभी पर्व खुशी, उमंग से मनाते नज़र आते हैं। जो मिला उसी में मस्त हुए फिरते हैं। दिन रात काम करके पेट भरने वाला मजदूर वर्ग अपने लिए ही काम नहीं करता, वह अपने चार पैसे गाँव भी भेजता दिखलाई पड़ता है। एक छोटी सी आठ बाई आठ की खोली में जीवन के सब कार्य करते नज़र आते हैं। इनके लिए वही इनकी रंगभूमि है। साथ में रहने वाले भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोग अलग-अलग जाति, धर्म के लोग इनके भाई बंधु बन जाते हैं। गरीबी की एकता, समानता उनके व्यवहार में समानता लाती है।
जीवन दर्शन तो यही दिखाता है कि हमें सुख-दुख में साथ रहना चाहिए, जहाँ भी हम रहते हैं, जहाँ काम करते हैं उन लोगों में समभाव बना रहे तभी हम सच्चे इंसान बन सकते हैं। अपने अंदर झाँक कर देखों पता चल जाएगा किसी रिश्तेदार के आने पर छाती पर साँप लौटता नज़र आएगा। लालची बीमारी में मदद को आए अपनो को झूठ बोलते हम नज़र आते हैं। अगर किसी की मदद करते भी हैं तो एहसान जताकर, उसको नीचा दिखाते हुए अपने यश की गाथा गाते हुए नज़र आते हैं। जरा सी परेशानी में घुटते-रोते-बिलखते नज़र आयेगें। दूसरों की परेशानी पर हँसते-खिलते-रंभाते नज़र आते हैं। साझा जीवन जीकर ही हम इंसानियत, मानवीयता का जीवन जी सकते हैं। इसकी शुरुआत घर के बड़ों को साथ रखकर करे, तुम्हारी आधी परेशानी स्वयं खत्म हो जायेगी। बच्चे जीना सीख लेंगे, जीवन सुधर जायेगा।