आम तौर पर लोग थायरॉइड की
समस्या को गंभीरता से नहीं लेते लेकिन
इसके कारण शरीर में कोलेस्ट्रॉल और
लिपोप्रोटीन का स्तर अनियमित हो
जाता है जिससे दिल की बीमारियां,
हृदयाघात, अवसाद और
आर्थरोस्क्लेरोसिस की आशंका बढ़ जाती
है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के
संयुक्त सचिव डॉ. रवि मलिक ने बताया
‘गले में पाए जाने वाली अंतरूस्त्रावी
ग्रंथि थायरॉइड से निकलने वाला हार्माेन
थायरॉक्सिन हमारे शरीर के लिए बहुत
हृदयरोग को दावत दे सकता है थायरायड
जरूरी होता है। किसी कारणवश इस
हार्माेन का उत्पादन कम या ज्यादा
होने लग जाए तो थायरॉइड की समस्या
हो जाती है। थायरॉक्सिन का उत्पादन
कम होने पर व्यक्ति को हाइपोथायरॉइड
और उत्पादन अधिक होने पर
हाइपरथायरॉइड की समस्या हो जाती
है।’ उन्होंने बताया ‘आम तौर पर लोगों
को हाइपोथायरॉइड की समस्या होती
है। दवाओं से इसे नियंत्रित किया जा
सकता है लेकिन इसका समय रहते
पता चलना अत्यंत महत्वपूर्ण है। वरना
यह बीमारी खतरनाक हो सकती है।
जिन बच्चों को हाइपोथायरॉइड की
समस्या होती है उनका मानसिक विकास
बाधित होने की आशंका अधिक होती है
क्योंकि थायरॉक्सिन हार्माेन दिमाग के
विकास के लिए बहुत जरूरी है।’
इंडियन थायरॉइड सोसायटी के
अध्यक्ष तथा कोच्चि स्थित अमृता
इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज
एंड रिसर्च सेंटर में एंडोक्राइनोलॉजी
विभाग के प्रोफेसर डॉ. आरवी जयकुमार
ने बताया ‘यह कड़वा सच है कि
हाइपोथायरॉइड के चलते कोलेस्ट्रॉल
और लिपोप्रोटीन का स्तर अनियमित
हो जाता है और करीब 90 फीसदी
मरीज डिस्लिपीडीमिया के शिकार हो
जाते हैं। उन्होंने बताया
‘डिस्लिपीडीमिया के कारण अवसाद,
आर्थरोस्क्लेरोसिस, हृदयाघात और दिल
की अन्य बीमारियों का खतरा बढ़
जाता है। थायरॉइड हार्माेन शरीर में
लिपिड सिंथेसिस, मेटाबोलिज्म
(चयापचय) और अन्य शारीरिक क्रियाओं
में मुख्य भूमिका निभाता है।
डिस्लिपीडीमिया की वजह से
कोलेस्ट्रॉल, लो डेन्सिटी लिपोप्रोटीन
(एलडीएल) कोलेस्ट्रॉल आदि का स्तर
बढ़ जाता है जो खुद शरीर के लिए
नुकसानदायक होता है। कोलेस्ट्रॉल
के नियंत्रण के लिए दवाएं दी जाती हैं
लेकिन थायरॉइड का नियंत्रण इसमें
कारगर हो सकता है।’
राजधानी के मेट्रो हॉस्पिटल के
डॉ. अनुपम जुत्शी ने बताया ‘थायरॉइड
की समस्या के कारण अनुवांशिकी,
पर्यावरणीय या पोषण आधारित हो सकते
हैं। यह समस्या किसी भी उम्र में हो
सकती है लेकिन आम तौर पर 20 से
40 साल के लोगों को इसकी आशंका
अधिक होती है।’ डॉ. जयकुमार ने
बताया ‘थायरॉइड की समस्या
ऑटोइम्यून डिजीज की देन भी होती
है। किसी कारणवश थायरॉइड ग्रंथि
की कोशिकाएं और उत्तक क्षतिग्रस्त हो
जाएं या ये कोशिकाएं और उत्तक
स्वतरू ही क्षतिग्रस्त हो जाएं तो
थायरॉक्सिन हार्माेन के उत्पादन पर
असर पड़ता है। कभी थायरॉइड ग्रंथि
में गांठ बन जाती हैं जिससे हार्माेन
उत्पादन प्रभावित हो जाता है। हमारे
शरीर को ऊर्जा उत्पादन के लिए
थायरॉइड हार्माेन की निश्चित मात्रा
चाहिए। इसमें एक बूंद की कमी या
अधिकता ऊर्जा स्तर को गहरे तक
प्रभावित करती है।’ डॉ. मलिक ने
बताया ‘थायराइॅड की समस्या का स्थायी
इलाज नहीं है। लेकिन समय समय
पर जांच तथा दवाओं से इसे नियंत्रित
रखा जा सकता है और लोग सामान्य
जीवन बिता सकते हैं।