बेटे का उपहार- डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला

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दिल्ली (हंसराज कॉलेज) भौतिकवादी सभ्यता और महानगरों में पनपे-पले हुए समाज में लोगों की आँखें चकाचौंध से चौंधिया गई हैं, इस बारे में कहीं कोई दो राय नहीं है। केवल वस्तुओं की जमावट एवं सजावट  की चाह रखने वाले समाज में अब माता-पिता, बुजुर्ग सामान की भाँति पुरानी वस्तु बन कर रह गए हैं। पढ़ा लिखा समाज और उन्नत पद पर आसीन व्यक्ति भी अब माता-पिता को घर के पिछवाड़े वाले कमरे में या कहीं इधर-उधर भेजकर पार्टी का आयोजन, उत्सव की शान को कम नहीं करना चाहता है। लोगों ने तो वृद्धाश्रम तक की राह अपने माता-पिता को दिखा दी है। यह सब एक दम नहीं हुआ है और सब जगह भी नहीं होता है।

यह तो मात्र संयुक्त परिवारों का एकल परिवार में बदलने का परिणाम है। अपनी स्वतंत्रता, अपनी उमंग, अपनों की चाह ने युवाओं को भ्रमित ही किया है। माता-पिता को अंत में दिशाहीन ही बना दिया है, जिनकी अंगुली पकड़कर चलना सीखा, चलना ही नहीं दौड़ना सीखा और फिर इतनी लंबी दौड़ लगाई कि उन्हें ही पीछे धकेल दिया। साहित्यकारों और समाज सेवियों ने इस भयंकर समस्या को लगाता उकेरा है। साहित्य समाज का दर्पण है और इसी को ध्यान में रखते हुए प्रेमचन्द, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी जैसे प्रसिद्ध साहित्यकारों ने बुजुर्गों की दयनीय दशा को बूढ़ी काकी, बेटों वाली विधवा, चीफ की दावत आदि कहानियों के माध्यम से दर्शाते हुए, संभलने की प्रेरणा दी है।

सिनेमा में भी इस प्रकार की दयनीय स्थिति को अच्छे से दिखाया गया है। बॉगवान, अवतार जैसी सुपर हिट फिल्म भी इसी ओर इशारा करती नज़र आती हैं। वास्तव में दिमागी खलन के अलावा यह कुछ भी नहीं है।

माता-पिता और गुरू का ऋण तो मनुष्य कभी नहीं चुका सकता है। मात्र सम्मान के दो क्षण, सम्मान के दो बोल से ही उनका दिल गद्गद् हो जाता है। हमेशा बच्चों की खातिर जीवन कुर्बान करने वाले माता-पिता क्यों हाशिए पर आ जाते हैं। बदलाव, परिवर्तन, काल चक्र किसी को भी दोषी बनाकर हम अपना दामन साफ रखना चाहते हैं। भूल जाते हैं कि इनके आशीर्वादों से ही हम सुरक्षित फल-फूल रहे होते हैं। इसीलिए मनुस्मृति में भी कहा गया है- अपने से बड़ों को नित्य प्रणाम और सेवा करने वाले की आयु, विद्या, यश और बल चार चीजें बढ़ती हैं। तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है- प्रातःकाल उठिके रघुनाथा, मात-पिता गुरू नवामहिं माथा।

हमारी संस्कृति ऐसी तो ना थी फिर भी कुछ ना कुछ डगमग होता दिखलाई दे रहा है। आज के ऐसे दौर में दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर प्रो. योगेश त्यागी द्वारा अपने कार्यालय में प्रथम दिन पर अपनी माँ से आशीर्वाद लेकर कार्य करने का प्रारंभ करना अच्छे दिनों की सौगात को दर्शा रहा है। जमीन से जुड़े संबंधों की आँच में तपे इंसानियत की मूर्ति का इससे अच्छा उदाहरण दूसरा और नहीं हो सकता है। 11 मार्च, 2016 का दिन मेरे लिए क्या, हर व्यक्ति के लिए स्मरणीय रहेगा। माँ के लिए इससे बड़ी सौगात बेटा क्या दे सकता है।

हमें याद रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अपनों का आदर-सम्मान करना नहीं जानता है, वह दूसरों का आदर-सम्मान क्या करेगा? यदि वह दूसरों का आदर-सम्मान करता है, तो वह स्वार्थ की चासनी से जुड़ा होगा। प्रो. योगेश त्यागी जी के द्वारा ऐसे कार्य की शुभयात्रा उनके व्यक्तित्व को परखने का, समझने का संकेत देता है, साथ ही साथ सब को जमीन से जुड़ने और बड़ो का आदर-सम्मान करने का भाव जगाता है। पहली बार ऐसा नज़ारा दिल्ली विश्वविद्यालय में देखने को मिला। इतने बड़े पद पर पहुँचना, पद पर पहुँचने पर भी तनिक भी गुमान चेहरे पर न होना उनके व्यक्तित्व को चार चाँद लगा रहा है। लोगों का ताँता बधाई देने के लिए लगा रहा और वे मंद-मंद मुस्कुराते हुए सभी से आत्मीयता का संबंध बनाए हुए माँ के साथ दिखाई दिए। सभी खुले मन से इसकी प्रशंसा करते दिखलाई दिए। उनकी इस सहजता और सरलता ने उन्हें असाधारण की कोटि में लाकर खड़ा कर दिया।