शिक्षक और शोध

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वर्तमान समय में शिक्षक को लेकर बहुत सारे नए मत और विचार उभर कर आ रहे है। उन विचारों तथा विषयों पर चर्चा, परिचर्चा आदि भी हो रही है। लेकिन इन सब बातों से दूर एक विचार यह भी है कि शिक्षक राष्ट्र का निर्माता होता है। इस विचार से यह स्पष्ट होता है कि एक शिक्षक अपने पूरे जीवन काल में अपना सारा समय, ऊर्जा और शोध केवल राष्ट्र के निर्माण में ही लगा देता है। उसके शोध का ही परिणाम होता है कि एक राष्ट्र विकास के पथ पर अग्रसर होता है। विचार किया जाए तो एक शिक्षक हर समय शोध करता रहता है और वह एक शोधार्थी का जीवन यापन करता है। साथ ही साथ वह शोधक का भी कार्य करता है, क्योंकि किसी भी प्रकार की त्रुटि या दोष-निवारण करने वाला शोधक कहलाता है।

शोध कार्य में दो क्रियाएं सन्निहित होती हैं- पहली किसी कच्ची धातु की उपलब्धि करना, दूसरी यह कि उसे गलाकर पवित्र परिष्कृत एवं दोषरहित बनाना। शिक्षक इन दोनों ही क्रियाओं को करता है अर्थात् उसके सामने आने वाला कोई भी बच्चा एक कच्चे घडे के समान होता है, जिसे वह अपने ज्ञान और बुद्दि प्रयोग से समाज का सभ्य नागरिक बनाता है। एक शिक्षक की बुद्धि तथा विचार हमेशा नए-नए प्रयोगों की ओर रहती है।

वास्तव में देखा जाए तो एक शिक्षक अपने शोध में बोधपूर्वक, ज्ञानपूर्वक आदि प्रयत्नों से तथ्यों का संकलन कर सूक्ष्मग्राही एवं विवेचक बुद्धि से उसका अवलोकन-विश्‌लेषण करके नए तथ्यों या सिद्धांतों का उद्‌घाटन करता है और अपने शिक्षार्थी को आगे बढाता है। नए ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न ही शोध होता हैं और शिक्षक इसके लिए हमेशा तैयार रहता है। शोध ही वह शक्ति है, जो मानव ज्ञान को दिशा प्रदान करती है तथा ज्ञान भंडार को विकसित एवं परिमार्जित करती है और इस दिशा में केवल एक शिक्षक ही प्रयासरत रहता है।

शिक्षक के शोध का ही परिणाम होता है कि एक राष्ट्र में व्याप्त उसकी व्यावहारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, साहित्यिक आदि सभी समस्याओं का समाधान होता है, क्योंकि वह हर समय अपने शिक्षार्थी को हर समस्या और उसके समाधान के विषय में विस्तार से बातें करता रहता है।

डॉ नीरज भारद्वाज