अनन्तराम चौबे – नारी/महिला – साप्ताहिक प्रतियोगिता

नारी ही नारी की दूश्मन है
घर घर में ये बात होती है ।
सास बहू के झगड़ो की
जग जाहिर चर्चा होती है ।

माँ बहिन बेटी के रूप में
पत्नी और बहू के रूप में ।
एक महिला नारी ही होती है  ।
फिर भी ईर्षा क्यों करती है ।

जब भी सास वो बनती है  ।
भेद भाव घर में करती है ।
बहू को बेटी जैसा क्यों
घर में आदर नहीं करतीं है ।

आज सास जो बन जाती है
एक दिन वो भी बेटी बहू होती है ।
सास का पद मिलते ही क्यों
रौद्र रूप धारण करती है ।

बेटे की जब शादी करती है
मनमाना दहेज माँगती है  ।
अपनी बेटी की शादी जब करती
दहेज विरोधी पक्ष में रहती है ।

एक महिला नारी होकर भी
रूप भाव बदलती रहती है ।
नारी ही नारी की दुश्मन  है
महिला होकर नहीं समझती है ।

पुरुषों के बरावर हक माँगती
अत्याचारों का रोना भी रोती ।
ऐसे ही नारी के रूप अनेक है
नारी की ये मंशा समझ न आती ।

नारी की इस लीला को
साधू संत भी समझ न पाये ।
स्त्री के पेट में बात न रहती
नारी को कोई समझ न पाये ।

नारी जितनी कोमल होती
उतनी ही चंचल भी होती है ।
रौद्र रुप जब धारण करती है
दुर्गी काली भी बन जाती है ।