प्रियंका दास मधुबनी – जवान/फौजी/सैनिक – साप्ताहिक प्रतियोगिता

मैं भी गा सकती हूँ,लैला मजनू की वो गजलें।
वासंती वाली मधुर मिलन की,सुंदर सी वो गाथाएँ।
मैं भी हाथ चला सकती हूँ,बीना के उस तारो पर।
झुमा सकती सबको मैं,अपने लफ़्ज़ों के अफसानो पर।
लेकिन ये सब हो सकता है,कुछ देर की बहारों की।
जब आती है याद मुझे,उस सैनिक कि कुरबानी की।
वादा किया था उन बहनों से,कि वापस मै आऊंगा।
कुवार्न हुआ जो मातभूमि पर,उनको कैसा भुलाऊगी।।

उसने भी तो मधुर मिलन की,सपने कभी देखें होगें।
आखों का तारा होगा,माथे की सिंदुर रहे होंगे।
जिन आखों ने जाने कितने,सपने देखें होगें।
पर देश की खातिर सब सपनो, चकनाचूर किये होगें ।
पर राज सिघासन वालो को,आवाज नहीं सुनाई देता है।
सैनिक कि कुरबानी उनको,साधारण सा ही लगता है।
क्या होता है सिनदुर कि कीमत,ये उनको भी पता होता।
जब उनके घर से सिमा पर,कोई सहिद हुआ होता।।

वो अपनी जिम्मेदारी को,निभाते स्वर्ग पथ को चले गए।
पर उसकी जिम्मेदारी जिसकी,वो अपने को भुल गये।
क्या कोई मोल हो सकता है,उन वीऱो का कुवार्नी का।
मधुर मिलन कि सुंदर वाली,वासंती जजबातो का।।

रह रह कर सताती होगी,बंधन सात फेरो की।
याद जब आती होगी,माँ के सितल आचल की।
मै उस सैनिक के चरणों में,अपना शीश झुकाती हूँ ।
इसलिए मै कविता को,हथियार बनाकर जीती हूँ।।