
पिता का घर छोड़, पिया का घर बसाती हूँ।
पल-पल सहनशीलता, समर्पण, क्षमा सिखलाती हूँ।
रंग-बिरंगे कांच के कंगन,
चीनी मिट्टी के वो छोटे छोटे बर्तन,
नीम की डाली पर छोटा-सा झूला,
सारे अधखिले सपने मोड़ आती हूँ।
पिता का घर छोड़, पिया का घर बसाती हूँ।
वो सखियाँ, गांव, गली, आंगन,
भाई-भौजाई, माँ का आंचल,
मिट्टी का वो सजीला घर,
सुंदर गुड़िया औ उसका काना वर,
संभाला था जिन्हें, तोड़ आती हूँ।
पिता का घर छोड़, पिया का घर बसाती हू।
तन के रक्त की बूंद बूंद से पोषित,
नव सृष्टि संसार में लाती हूँ।
वो कष्ट, पीड़ा और यंत्रणा सब,
ममत्व में भूल जाती हूँ।
संतति की बस एक स्निग्ध स्मित से,
आनन्द के उत्ताल सागर में झूम जाती हूँ।
पिता का घर छोड़, पिया का घर बसाती हूँ।