मजदूर की आवाज़
मजदूर हैं हम मजबूर नहीं
है आत्मसम्मान हमारा भी
क्योंकि हम भी हैं एक इंसान।
हम ताजमहल की बुनियाद हैं
और हैं चार मीनार की दीवार,
लाल क़िले की शान हैं
और हैं चीन की लंबी दीवार।
हम आलीशान मकान हैं
और कहीं हैं पुल विशाल,
पुल बनाने में चली जाती है हमारी जान
और हो जाते हैं हमारे प्यारे बच्चे अनाथ।
ऊंची ऊंची इमातों से गिरकर
कम हो जाती है हमारी आबादी,
मच जाती है तब हमारे प्यारे
माता – पिता के जीवन में तबाही।
हम रेल की पटरियों का हैं विस्तार
हम दशरथ मांझी जैसे हैं बलवान,
जिनसे अकेले काटा पहाड़ विशाल
और बना दिया एक सुंदर मार्ग,
और रचा एक नया इतिहास।
हमनें ही दिया सबको छत
पर हमें नही मिला छत आजतक,
सर्दी गर्मी और बरसात
झेलते रहते हैं सारी रात।
हमनें बनाएं महल क्यों सारे
जब बच्चे सोते हैं फुटपाथ पर हमारे,
स्कूल कॉलेज की दीवार
हमारे हाथों का है कमाल।
फ़िर क्यों नहीं मिलता
हमारे बच्चो को स्थान,
कोई क्यों नहीं समझता
फ़िर उनके जज़्बात।
अगर पता होता हमको
नहीं मिलेगा सम्मान ,
और विद्यालय में स्थान
ना जाते हम करने काम,
फरमाते घर में आराम।
कट जाते हैं हाथ हमारे
कपड़ों के बड़े मीलों में,
फिर भी नंगे फिरते हैं
बच्चे हमारे गलियों में।
खेतों में काम करते करते
जल जाते हैं शरीर हमारे,
फ़िर भी भूखे सो जाते हैं
घर के कोनो में बच्चे हमारे।
इतना ही नहीं सहते हम
ये तो था दर्दे बयां ही कम,
पहुंचते हैं जब घरवाले
उसी अस्पताल में,
जिसे हमने बनाया
भीगी बरसात में,
होता नही वक्त पर इलाज़
पहुंचा दिए जाते हैं वो शमशान में।
इतना से ही मन भरता नहीं
संसार के अमीर लोगों का,
काटते रहते हैं तनख्वाह हमारी
लेकर सहारे नए नए बहानो का।
जब आता है अंतिम समय हमारा
देने वाला होता नही हमें कोई सहारा,
कभी कभी तो कफ़न भी नसीब नहीं होता हमें
रह जाती हैं हमारी लाशें कोयले
की खदानों में दबे,
हमसे ही रोशन है संसार ये सारा
पर हमारे घरों में ही रह जाता है अंधियारा,
कब तक रहेंगे ऐसे हालात
पूछती है मजदूर की आवाज़।।
पूजा प्रसाद
तिनसुकिया।